Thursday 4 April 2019

अल्फ़ाज़ या जज़्बात

यूँ तो मैं खुद में भी कम न था,
सच में गम करने को कोई गम ना था,
आरज़ू थी या अजीब सा पागलपन,
ये मोहब्बत की रिवाज़े थी या इंसानियत का फ़र्ज़,
ये प्यार का दस्तूर था या मेरी ज़िद्द की फैसला,
जो भी था ये तो खुद खुदा ही जानता होगा,
हम तो मोहब्बत के दस्तूर में ही डूबते गए,
तेरे खंज़र को भी फूल समझते गए,
जानते थे इस अंजाम को भी पहले से,
फिर भी तुझे चाहने की भूल करते गए,
हर जुल्म तेरा सहकर भी तुझे रब से मांगते रहे,
अपनी बर्बादी का आलम भी जानते रहे,
तेरी हर खता को तुझसे चुरा कर खुद में समेटा,
खुदा कसम तेरे लिये खुद को गुनेहगार किया,
फिर तू मेरा ना बन सका, मुझमें बसकर भी मेरा ना हुआ।
आज भी भरोसा उस खुदा पे बना है।
जिसने मेरी हर लकीर को बुना है।

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